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Lallantop : सौ साल पहले मुसलमान औरतें लिख रही थीं ‘गवरमेंट हौव्वा नहीं है’

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दी लल्लनटॉप के लिए ये आर्टिकल लिखा है. शाहनवाज़ मलिक ने. बुर्के पर बहस चल रही है. शाहनवाज़ ने पहले भी लिखा था.  ना बुर्के में इस्लाम है, ना इस्लाम में बुर्का है? आप भी कुछ सलीके का लिखकर भेजना चाहते हों तो हमें भेज दीजिए lallantopmail@gmail.com पर. अच्छा लगा तो हम जरुर शेयर करेंगे.

घर की चारदीवारी मुसलमान औरतों की दुनिया है. वो रहती हमेशा पर्दे में हैं सिवाय घर के चंद मर्दों के. बच्चे जनना, उनके पोतड़े साफ़ करना और घर की देखभाल ही उनकी ज़िम्मेदारी है. वो डॉक्टर या इंजिनियर नहीं हैं और ना ही कारोबार या सियासत में उनका कोई ख़ास दख़ल है. उनकी हालत ज़िबह के लिए तैयार मेमने की तरह है जो सड़कों पर अपने हुक़ूक के लिए नहीं उतर सकतीं. किसी रायशुमारी की ज़रूरत नहीं क्योंकि 21वीं सदी में हिन्दुस्तान की मुसलमान औरतों के बारे में यही आम राय है.
अगर ये ज़मीनी सच्चाई है तो हाय हसन हाय हुसैन कहते हुए मातम करना चाहिए क्योंकि 100 साल पहले मुसलमान औरतों की हालत ठीक इसके उलट थी. वो समाज से लेकर सियासत और मज़हबी लीडरानों से लेकर कौम तक को घेर रही थीं. 1927 में जब महात्मा गांधी का आंदोलन चरम पर था, तब मुसलमान औरतें ‘खद्दरपोशी’ लिखकर उनकी पूरी तहरीक पर नुक्ताचीनी कर रही थीं. 1935 में इस्मत चुग़ताई लिख रही थीं कि बुर्के में क़ैद करने से औरतों की आवाज़ घुट रही है. इससे बचने के लिए क़ुरआन और हदीस का हवाला देना छोड़ दें क्योंकि अब हमें इसकी फिक्र नहीं है.
उस ज़माने में दिल्ली से ‘उस्तानी’ लाहौर से ‘तहज़ीबे निस्वां’ और अलीगढ़ से ‘ख़ातून’ निकलती थी. छोटे-मोटो क़स्बों में भी मुसलमान औरतें इसी तर्ज़ पर कई मैग्ज़ीन निकाल रही थीं. इन्हीं रिसालों से मुसलमान औरतों की चुनिंदा रचनाएं कलाम-ए-निस्वां के रूप में प्रकाशित की गई हैं. इसकी एडिटर पूर्वा भारद्वाज कहती हैं, ‘इनके कलाम पढ़कर पता चलता है कि तब मुसलमान औरतें ख़िलाफ़त तहरीक से लेकर स्वदेशी आंदोलन तक में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही थीं. सभी अहम मुद्दों पर उनकी राय बेबाक़ और बेखौफ़ थी लेकिन अब ऐसा नहीं है.’
पूर्वा और उनके दोस्तों को बीते साल अक्टूबर में ख़याल आया कि 100 साल पहले मुसलमान औरतों की आवाज़ का तआरुफ़ आज की पीढ़ी से करवाना चाहिए. कम से कम आज की आवाम को पता तो चले कि मुसलमान औरतें हमेशा से हाशिए पर नहीं थीं. इसका ख़्वाब देखने वालों में नाटककार शाहिद अनवर भी शामिल थे लेकिन वो अचानक चल बसे. फिर कमान संभाली पटना के निर्देशक विनोद कुमार ने और मंचीय प्रस्तुति की तैयारियां शुरू हुईं.
इतवार की शाम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के एनेक्सी में दिल्लीवाले जमा हुए लेकिन कइयों को बाहर से लौटना पड़ा. ऑडीटोरियम कद्रदानों से ठसाठस भरा हुआ था. मंच पर चार ख़वातीन अलका रंजन, श्वेता त्रिपाठी, रिज़वाना फ़ातिमा और पूर्वा भारद्वाज जमा हुईं. सभी के हाथ में 1911 से लेकर 1927 के बीच मुसलमान औरतों के लिए गए मज़ामीन थे. जब श्वेता त्रिपाठी ने पढ़ना शुरू किया तो उनका अंदाज़ और तलफ्फुज़ (उच्चारण) सुनकर मुझे दास्तानगो अंकित चढ्ढा की याद आई. ऐसा लगा कि दिल्लीवालों को उर्दू ज़बान की अंकित चड्ढा मिल गई है.
1919 में दिल्ली से निकलने वाली मैग्ज़ीन उस्तानी में इसकी एडिटर ख़्वाजा बानो ने ‘उस्तानी का तआरुफ़’ शाया किया. अलका रंजन इसी के साथ शुरू होती हैं, ‘बड़ा हंगामा है कि उस्तानियों की किल्लत है, कि उस्तानियां नहीं मिलती. अच्छा बहनों मिठाई खिलाओ तो तुम्हें ऐसी उस्तानी का पता बताऊं जिन्हें देखते ही फड़क उठो. लीजिए…लीजिए जनाब ये बी उस्तानी हाज़िर हैं जो कागज़ी बुर्के में लिपटी सुल्तानजी निकलीं और डाक गाड़ी में बैठकर आपकी बज़्म-ए-दर्स को ज़ीनत देने आई हैं.’ ख़्वाजा बानो अपने आर्टिकल में कभी लतीफ़े सुनाती हैं तो कभी मुसलमान औरतों को भीतर से झिंझोड़ती हैं. इसमें कहीं शीरीं नगमें हैं तो कहीं अपने हुक़ूक के लिए बग़ावत की ख़ुशबू.
दिल्ली की वजह से उस्तानी मुसलमान औरतों की तरक़्क़ीपसंद और राजनीतिक मैग्ज़ीन थी. यही हाल लाहौर से निकलने वाली तहज़ीब-ए-निस्वां का था जबकि अलीगढ़ से निकलने वाली ख़ातून ज़रा मॉडरेट किस्म की थी. उसमें घर और औरतों की घरेलू ज़िंदगी से जुड़े आर्टिकल ज़्यादा शाया होते थे जैसे आज के ज़माने की गृहशोभा वग़ैरह हैं मगर सभी रिसालों में औरतों की बेहतरी और उनमें सुधार की बहस बराबर चल रही थी.
जैसे ख़ातून में 1911 में एक आर्टिकल ‘फट पड़े वो सोना जिससे टूटें कान’ शाया हुआ. इसकी लेखिका थीं आलिया बेगम बिन्त मुजीब अहमद तमन्नाई. यहां बहस हो रही है कि औरत किस हद तक मॉडर्न होनी चाहिए. क्या सिर्फ इतनी कि पढ़ा लिखाकर उसे घर का खर्चा निकालने वाली बना दिया जाए? कहीं वो इतना ना पढ़ लें कि विलायती मेम बन जाएं और घर की बजाय दुनिया ही बदलने निकल जाएं. फिर सवाल उठेगा कि हाल अल्लाह ये घर में मेम कहां से आ गई. 100 साल बाद भी कमोबेश यही सारे सवाल आज भी बने हुए हैं.
इसी तरह 1920 में उस्तानी ने एक लेख ‘जिन्से लतीफ़ की सरगर्मियां’ शाया हुआ. चूंकि लेख ज़माने के हिसाब से कुछ ज़्यादा ही प्रोग्रेसिव था. लिहाज़ा, लेखक के नाम की जगह लिखा हुआ था ‘नामालूम.’ इसमें बताया गया था कि दुनियाभर में औरतों कहां-कहां क्या कर रही हैं. कहां ज़दीद तहरीक़ चल रही है और कहां हक की लड़ाई ज़ोर पकड़ रही है. लेख में आगरा, बरेली, इंग्लिस्तान, कुस्तुनतुनिया और नटिंघम तक में कुछ बेहतर करने वाली औरतों का ज़िक्र हुआ था.
1927 में जब गांधी की झलक पाने और उन्हें सुनने के लिए हिन्दुस्तान की आवाम बेक़रार हुआ करती थी, तब लाहौर से निकलने वाली तहज़ीबे निस्वां ने ‘खद्दरपोशी’ लिखकर गांधी के विचार की हवा निकाल दी. लाहौर से ज़फर जहां बेगम ने लिखा, खादी के बहाने आवाम को एकजुट करने का विचार खोखला है. खद्दर इतना मोटा होता है कि ढंग से रंग भी नहीं चढ़ता. महंगा इतना है कि हर कोई ख़रीददार नहीं हो सकता. ज़फर जहां बता रही थीं कि कैसे खद्दर पर कलाकारी करके इसे हिन्दुस्तान के बाज़ारों में मक़बूल किया जा सकता था जिसके बारे में गांधी नहीं सोच पाए और थक-हारकर लोग विदेशी कपड़े पर चले आए. दरअसल ज़फर खद्दरपोशी के बहाने गांधी के पूरे आंदोलन पर सवाल खड़ा कर रही थीं.
1919 में ख़ातून में एक तगड़ा आर्टिकल ‘गवरमेंट हौव्वा नहीं है’ लिखकर अजीज़ा ख़ातून ने माहौल बना दिया. वो अपने लेख में इंसान से लेकर कौम तक की नुक्ताचीनी के हक़ की वकालत करती हैं. वो लिखती हैं, ‘इंसान भी आख़िर इंसानी अफरात का एक मजमुआ है. कोई मल्कूती मख्लूक तो है नहीं जिसकी ज़ात से किसी किस्म की गलती या कोताही का एहतमाल ही मुमकिन नहीं.’ वो कहती हैं कि चार किस्म के लोग नुक्ताचीनी करते हैं. एक आज़ादाना किस्म के, दूसरे मन ही मन में कुढ़कर बोलने वाले, तीसरे अपने फायदे और मतलब के लिए और चौथे इंतेहापसंद साहेबान हैं कि मतलब कुछ भी कर लो मगर इनके दिल में चैन नहीं है.
आख़िर में अजीज़ा ख़ातून लिखती हैं कि गवरमेंट का हौव्वा मत बनाओ नहीं तो सोते वक्त माएं यह कहकर डराने लगेंगी कि जल्द सो जाओ वरना गवर्नमेंट आकर तुम्हें खा लेगी. अजीज़ा ख़ातून की ये लाइन शोले फिल्म में गब्बर के एक डायलॉग की याद दिलाती है.
तो ये थीं 100 साल पहले की मुसलमान औरतों की आवाज़ें ‘हम ख़वातीन.’
ऑडीटोरियम में एक पैम्फलेट भी बांटा गया जिसमें इस प्रोग्राम की तफ्सील थी. इसकी शुरुआती चंद लाइनें.
‘हम ख़वातीन. ये तक़रीबन 100 साल पुरानी आवाज़ें हैं. औरतों की, मुसलमान औरतों की, उर्दू में जो आज हिन्दुस्तान में हाशिए पर हैं. लेकिन ये उस वक़्त की आवाज़ें हैं, जब ना तो मुसलमान दबा हुआ महसूस करते थे और ना उर्दू.’
ये मुसलमान औरतें हैं, जो अपनी दुनिया को देख रही हैं, उसके मज़े ले रही हैं, उसकी नुक्ताचीनी भी कर रही हैं. इनमें हिचकिचाहट भी है तो कहीं वो बेख़ौफ़ नज़र आती हैं. ये ख़ुदमुख़्तार औरतें हैं, लेकिन कई बार अपने नाम तक से नहीं लिख पाती हैं. फिर भी लिखती हैं, बोलती हैं.’

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रसदार

मोहब्बत ज़िंदाबाद

 7 जुलाई को रसचक्र की नवीनतम प्रस्तुति मोहब्बत ज़िंदाबाद में प्रेम की 51 कविताओं का पाठ किया गया. रसखान से लेकर भिखारी ठाकुर, मंगलेश डबराल और रोमानियाई कवयित्री निना कास्सिआन, पोलिश कवि रुज़ेविच तक की कविताओं में प्रेम के रंगारंग रूप को पेश किया गया. पाठात्मक प्रस्तुति में शामिल साथी हैं - मैत्रेयी कुहु, आकाश गौतम, रिज़वाना फ़ातिमा, श्वेता त्रिपाठी, श्वेतांक मिश्रा, पूर्णिमा गुप्ता, पूर्वा भारद्वाज, अलका रंजन, वंदना राग और अपूर्वानंद. संकलन और चयन था पूर्वा भारद्वाज और रिज़वाना फ़ातिमा का. सहयोगी थे  नील माधव और अपूर्वानंद.

रसचक्र की नवीं बैठकी

27 मई 2017 को रसचक्र की नवीं बैठकी संपन्न हुई. बैठकी में लगभग चौदह लोगों ने शिरकत की. कई भाषाओँ की रचनाओं का पाठ किया गया जिनमें गद्य, पद्य तथा गीत भी शामिल थे. पढ़े जाने वाली रचनाओं में भारतीय और विदेशी भाषाओँ के कवि और लेखकों की रचनाएँ शामिल हैं. अशोक वाजपेयी, कुँवर नारायण और पाब्लो नेरुदा की अनूदित कविताओं का पाठ किया गया. मंटो के खतों के कई हिस्से भी इस बार की रसचक्र  की बैठकी का हिस्सा रहे, वहीँ कार्ल सगान के निबंध 'अ पेल ब्लू डॉट' का पाठ किया गया. रसचक्र की बैठकी का एक आकर्षण रहा टिम अर्बन द्वारा किया गया 'Fermi's paradox' का वर्णन. अलग-अलग तरह की आकाशगंगाओं में जीवन के चिह्न क्यों नहीं हैं, इस विषय पर बहुत दिलचस्प शैली में लिखी गई रचना है यह. 'कलामे निस्वाँ' से मिसेज़ सीन. मीम. दाल द्वारा लिखित ‘अनोखी शादियाँ’ का पाठ हुआ. सुभद्रा कुमारी चौहान के इतिहास से संबंधित स्मृतियों का ज़िक्र भी किया गया तो नेहरु की वसीयत और उनके पत्रों का पाठ भी किया गया. साथ में पद्मावत और सूरसागर के एक पद का गायन हुआ. अंत हुआ हिम

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