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Published on 20 Jun 2016
ज़रा सोचिए क़रीब सौ साल पहले मुसलमान औरतें उर्दू में क्या लिखती थीं? क्या कहना चाहती थीं? आज के दौर में जब मुसलमान औरतों का ज़िक्र बुर्का, तीन तलाक़, इस्लामी फ़तवों या यूनीफ़ॉर्म सिविल कोड के संदर्भ में ही होता है, आपको जानकर हैरानी होगी कि बीसवीं सदी की शुरुआत में वो इसके इतर कितनी बातें कह रही थीं. हाल ही में एक नाटक 'हम ख़वातीन' ने उस दौर के कुछ लेखों को चुनकर दिल्ली में पेश किया. इस नाटक ने एक झलक दी बीसवीं सदी की शुरुआत में मुसलमान औरतों की ज़िंदगी की. ये वो दौर था जब मुसलमान लड़कियों ने स्कूल जाना बस शुरू ही किया था. इससे पहले घर में इस्लामी पढ़ाई तक सीमित लड़कियों को अब बाहर जाकर पढ़ने की इजाज़त दी जाने लगी थी. बीसवीं सदी की शुरुआत में आ रहे इस अहम बदलाव पर हो रही बहस की नब्ज़ पकड़ी ज़फ़र जहां बेगम ने अपने लेख, 'स्कूल की लड़कियां' में. इसमें स्कूल जाने वाली लड़कियों की नीयत पर शक़ और उन्हें मिलने वाली शिक्षा के मक़सद से जुड़ी शंकाओं पर सवाल उठाने की कोशिश की गई.
यहाँ इस्तेमाल हुए कुछ कठिन उर्दू शब्दों के अर्थ-
मुख़ालिफ़ीन- विरोधियों
ख़िलाफ़े मामूल- दस्तूर के ख़िलाफ़
उयूब- बुराइयाँ
वबा- आफ़त
आर- शर्मिंदगी
अज़ीज़ा- प्रिय
क़ौल- वक्तव्य
अम्दन- जान-बूझकर
शाहिद- गवाह
लक़ब- उपाधि
तज़किरा- वर्णन
तास्सुब- पक्षपात
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