हम
ख़वातीन
सौ साल पहले के उर्दू
रिसालों में प्रकाशित मुसलमान औरतों की आवाज़ों की प्रस्तुति
निर्देशन: विनोद कुमार
ये मुसलमान औरतें हैं, जो अपनी दुनिया को देख रही हैं, उसके मज़े ले रही हैं, उसकी नुक्ताचीनी भी कर रही हैं. इनमें हिचकिचाहट भी है तो कहीं वे बेखौफ नज़र आती हैं. ये खुदमुख्तार औरतें हैं, लेकिन कई बार अपने नाम तक से नहीं लिख पाती हैं. फिर भी लिखती हैं, बोलती हैं.
मुसलमान औरतों के बारे में यह ख़याल आज प्रचारित किया जा रहा है कि उनसे अधिक बदनसीब कोई और नहीं, कि वे दबी-कुचली और सताई हुई हैं जिन्हें उनके जुल्मी मर्दों से आज़ाद करने के लिए मुहिम चलाने की ज़रूरत है, कि उनकी कभी कोई अपनी आवाज़ नहीं रही. हम खवातीन इस भ्रम को तोड़ने की एक कोशिश है:लिखती, पढ़ती, दुनिया में अपनी जगह तलाशती हुईं औरतें जो मुसलमान होने पर शर्म नहीं महसूस करतीं और न औरत होने को शाप मानती हैं.
जिन पुराने उर्दू रिसालों से उनके मज़ामीन लिए गए हैं उनमें
से ‘तहज़ीबे निस्वां’ लाहौर से निकलना शुरू
हुई थी, ‘उस्तानी’ दिल्ली से और ‘ख़ातून’ अलीगढ़ से. हालाँकि छोटे-छोटे कस्बों से भी कई
रिसाले निकलते थे. उनका एक संकलन 'कलामे निस्वाँ' नाम से निरंतर संस्था ने प्रकाशित किया है. उसी से चुनींदा रचनाएँ 'हम ख़वातीन' लेकर आई हैं. ये अलग अलग समय में अलग अलग
पत्रिकाओं में अलग अलग लेखिकाओं की रचनाएँ
हैं. अलग-अलग मसले पर अलग-अलग अंदाजे-बयाँ के साथ ये सब ख़वातीन एक ही
बात कहती जान पड़ती हैं : बोलने के लिए आज़ादी चाहिए और आज़ादी के लिए बोलना.
आपबीती (ख़ातून, 1910, ज़ेहरा) में साफ़ नज़र आता है कि काफ़ी पहले से खिलाफ़े शरई और खिलाफ़े अक्ल जो रस्मो रिवाज थे उन पर सवाल उठने लगे थे. शादियों में सुधार का वक्त आ गया है, इसकी समझ पैनी होने लगी थी. इसमें अपने निजी अनुभव से गुज़रते हुए लेखिका शादी-निकाह जैसी संस्था की आलोचना करती हुई मिलती हैं. उनका स्वर धीरे-धीरे मुखर होता जाता है और अंत में तो आह्वान की तरह लगता है जब माँ-बाप की नाखुशी की परवाह करने की जगह वे लड़की की मर्ज़ी की बात करती हैं.
लेखिकाओं की चिंताएँ और भी हैं. उनका दायरा वसी है. उन्हें एक-दूसरे समुदाय के लोगों, तौर-तरीकों के बारे में भी अधिक से अधिक जानना है. यह दिखता है मीराँ बाई (उस्तानी,1920, ताज साहिबा लाहौरी) में. उसमें भाषा की मिठास और रवानी देखते बनती है. यहाँ केवल ख़ुदापरस्त रानी मीराँबाई की इश्क़े इलाही के किस्से का बयान नहीं है, बल्कि कुँवारी लड़की के कायदों और उनसे टकराने की कहानी है. क्या एक औरत को भी मजहबियत को अपने तरीके से अहसास करने का हक है? क्या मर्द ही संन्यासी हो सकते हैं या औरत भी इस संसार को असार मान अपनी और ईश्वर की एक निराली दुनिया बसा सकती है जिसमें किसी और का दखल नहीं!
उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के
दौर में नए सिरे से औरत को गढ़ा जा रहा था. उसमें तालीम की ज़रूरत थी, लेकिन कैसी
तालीम, कितनी तालीम और किसके लिए तालीम ? तालीम के मकसद को लेकर चिंता गहरी थी जो स्कूल
की लड़कियाँ (तहज़ीबे निस्वाँ, 1927, ज़फ़र जहाँ बेगम).
में साफ़ नज़र आता है. धार्मिक पहचान को बनाए रखने में पढ़ाई-लिखाई काम आएगी या उसे
बिगाड़ने में, इसको लेकर नाप-तौल चल रही थी. तालीम हासिल करके अपनी बाकी पहचानों के
साथ औरत अपना औरतपना छोड़कर कहीं मेम न बन जाए - इसका खतरा हर वक्त लोगों के सर पर
सवार था.
औरत की भूमिका के साथ उसके
भीतरी और बाहरी रंग-रूप सबको नए साँचे में ढाला जा रहा था. इसकी झलक मिलेगी फट पड़े वो सोना जिससे टूटें कान (ख़ातून,
1911, आलिया बेगम बिन्त मुजीब अहमद तमन्नाई) में. लेखिका अलग अलग जगह की औरतों के
साज-सिंगार के तरीकों पर टिप्पणी करते हुए उसमें बदलाव की बात करती हैं. तर्क देती
हैं कि इसके लिए कोई मज़हबी हिदायत नहीं है, बल्कि यह रिवायत है. उसमें हौले हौले
सुधार की ज़रूरत है, यह मानती हैं. औरतों को एकबारगी सबकुछ छोड़ देने की बात वो नहीं
कहती हैं. उनकी बात में पुख़्तगी है, मगर लहज़े में सावधानी भी है.
चाहे भक्ति हो या सामाजिक आचार-व्यवहार, औरतें
नियम-कायदों को चुनौती दे रही थीं. सियासत में भी उन्होंने जमकर शिरकत की.
उन्होंने संगठन बनाए, अपने साथ गाली-गुफ़्ता करनेवाले के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद की तो
मुनाफ़ाखोरी के मुद्दे पर भी गोलबंद हुईं. इसका बयान मिलता है जिन्से लतीफ़ की सरगर्मियाँ (उस्तानी,
1920, नामालूम ) में. औरतों
ने देहली, बरेली, आगरा, से लेकर नाटिंघम, इंग्लैंड और तुर्की तक अपने और दूसरों के हक़ के लिए जो
लड़ाइयाँ लड़ीं उनका ब्यौरा इसमें मिलता है. खिलाफ़त और स्वदेशी आंदोलन की बात है तो
लाइब्रेरी खोलने की ज़रूरत पर भी ध्यान दिया गया है. आंदोलन का नेतृत्व करनेवाली
औरतों का विशेष कर उल्लेख है.
औरतों की अपनी राय है, अपने तर्क हैं और आलोचना का अपना आधार है. इसे हमारे सामने लाती है खद्दरपोशी (तहज़ीबे निस्वाँ,1927, ज़फ़र जहाँ बेगम). जिस समय गाँधी की
शोहरत उठान पर थी और खादी को लेकर आंदोलन हो रहे थे, उस समय लेखिका दमदार तरीके से
खादी का पूरा विश्लेषण करती हैं. अर्थशास्त्री की तरह. सधी हुई और चुटीली भाषा
में. इसमें रोज़मर्रा के अनुभवों के आधार पर बात कही गई है जो आन्दोलन चलाने के
तौर-तरीकों पर एक राजनीतिक टिप्पणी है. मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच यह आन्दोलन
क्योंकर मक़बूल हुआ, इसको लेखिका बताती हैं. दस्तकारों और लीडरों के काम और बाज़ार
की उनकी समझ भी सामने आती है.
जीवन का अनुभव कहिए या नुक्ताचीनी कहिए, औरतों को अपनी बात कहने का मंच चाहिए, भागीदारी चाहिए. यह बात कहती है अंतिम सामूहिक प्रस्तुति गवरमेंट हौव्वा नहीं है (उस्तानी, 1919, अज़ीज़ा ख़ातून). साफ़ ज़बान में लेखिका कहती हैं
कि सरकार भी आखिर कोई आसमानी चीज़ तो है नहीं, इंसानों से ही बनती है तो उसकी
गलतियों और खामियों पर बात की ही जा सकती है. वे यूरोप की सरकार के काम करने के
ढंग का हवाला देती हैं. जनता को चार हिस्सों में बाँटकर हरेक के पेश आने के तरीकों
का बारीकी से विश्लेषण करती हैं. उनकी निगाह सरकारी कानून से लेकर औरतों की हरकतों
तक पर है. सरकार में अपनी भागीदारी को वे किसी भी कीमत पर छोड़ना नहीं चाहती हैं.
रसचक्र को हमने रसिकों की
अड्डेबाज़ी के रूप में रखा है. यह मनमाफ़िक चलनेवाला एक चक्र है. हम ख़वातीन की प्रस्तुति रसचक्र
की पहली प्रस्तुति है. दिल्ली के अलावा पुणे और मुंबई में इसकी प्रस्तुतियाँ हो
चुकी हैं. इसकी योजना शुरू हुई थी इस्मत चुगतई की जन्मशती के मौके पर उनकी रचनाओं
की प्रस्तुति करने के इरादे को लेकर. उस कार्यक्रम का स्वरूप बदला, लेकिन योजनाएँ
और भी हैं.
विनोद कुमार वरिष्ठ रंगकर्मी हैं. तकरीबन 35 वर्षों
से वे अभिनय कर रहे हैं. उसके साथ निर्देशन के क्षेत्र में भी उनका दखल है. पिछले
कुछ सालों में वे गैर-कथात्मक रचना के साथ प्रयोग कर रहे हैं जिसकी बानगी मिलेगी हम ख़वातीन में. इसकी
स्क्रिप्ट तैयार करने और समन्वयन में पूर्वा भारद्वाज ने पहलकदमी ली.
प्रस्तुतिकर्ताओं में हैं अलका रंजन, पूर्वा
भारद्वाज, श्वेता त्रिपाठी और रिज़वाना फ़ातिमा. प्रकाशन, लेखन-संपादन, शोध और संगठन
के क्षेत्र में वे लंबे समय से काम कर रही हैं. मनमाफ़िक काम करने के लिए वे इकठ्ठा
हुईं और उसी से चल पड़ा रसचक्र.
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